जातिगत जनगणना का फैसला: नई सामाजिक-राजनीतिक दिशा की ओर भारत

भारत सरकार ने देश की जनगणना प्रक्रिया में बड़ा बदलाव करते हुए अब जाति आधारित आंकड़ों को भी शामिल करने का निर्णय लिया है। इस ऐतिहासिक निर्णय की घोषणा बीते सप्ताह कैबिनेट मीटिंग के बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने की। इस फैसले के तहत अब हर घर जाकर की जाने वाली जनगणना में करीब 30 सवाल पूछे जाएंगे, जिनमें एक अहम सवाल लोगों की जाति से संबंधित होगा।

पहली बार जाति की गणना
अब तक जनगणना में केवल धर्म या सामाजिक वर्ग का उल्लेख किया जाता था, लेकिन यह पहली बार होगा जब सरकार हर नागरिक की जाति का डेटा एकत्र करेगी। इसका उद्देश्य है — योजनाओं को ज़मीनी हकीकत के अनुसार आकार देना और सामाजिक संसाधनों का संतुलन तय करना।

राजनीतिक प्रतिक्रियाएं और मांगें तेज़
जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा 50 फीसदी खत्म करने की मांग भी ज़ोर पकड़ रही है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर संविधान संशोधन के जरिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने की वकालत की है। साथ ही निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने की मांग भी दोहराई गई है।

सुप्रीम कोर्ट और 50% सीमा की पृष्ठभूमि
गौरतलब है कि 1992 के इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जातिगत आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय की थी। हालांकि, EWS (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) के लिए 10% अतिरिक्त आरक्षण को कोर्ट ने वैध माना था क्योंकि वह जाति नहीं, आर्थिक स्थिति पर आधारित है।

अब अगर ओबीसी, एससी और एसटी की कुल आबादी 70% के आसपास निकलती है, तो 50% सीमा पर फिर बहस तेज़ होना तय है।

‘कोटे में कोटा’ की ओर बढ़ते कदम
जातिगत उप-वर्गीकरण यानी कोटे के भीतर कोटा की नीति भी सुर्खियों में है। सुप्रीम कोर्ट की स्वीकृति के बाद हरियाणा और कर्नाटक सरकारें एससी वर्ग की उप-जातियों के लिए आरक्षण को वर्गीकृत कर रही हैं। इसका उद्देश्य है— सच में वंचित वर्गों तक आरक्षण का लाभ पहुंचाना।

ओपन कैटिगरी पर सवाल
अगर जातिगत आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाती है, तो सवाल यह भी उठता है कि ओपन कैटिगरी के लिए कितनी सीटें बचेंगी? फिलहाल 49.5% जातिगत आरक्षण और 10% EWS कोटा लागू है। ऐसे में अगर यह सीमा और बढ़ती है, तो सामान्य वर्ग के उन लोगों के लिए अवसरों में कटौती तय मानी जा रही है जो न जातीय और न आर्थिक श्रेणी में आते हैं।

आगे क्या?
जातिगत जनगणना के परिणाम आने के बाद देश में सामाजिक न्याय की बहस और तेज होगी। सरकार को न केवल आंकड़ों की पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी, बल्कि सभी वर्गों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर संतुलित नीति भी बनानी होगी।

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